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Tuesday, October 22, 2024

THE LANGUAGE OF NUMBERS

Sanskrit 
Sanskrit, the ancient language of India, is revered not only for its literary and philosophical richness but also for its profound influence on mathematics. The term ‘ganita,’ which means mathematics, originates from the Sanskrit root ‘gana,’ signifying ‘to count’ or ‘to enumerate.’ This connection underscores the deep relationship between Sanskrit and the development of mathematical thought in India.

Mathematical Foundations in Vedic Period: The seeds of mathematical inquiry were sown as early as the Vedic period. The Vedas, foundational scriptures of Indian knowledge, contain references to numbers, arithmetic progressions, and geometry. The intricate designs of Vedic altars, which required precise mathematical calculations, are evidence of this early engagement with mathematical concepts.

Pioneering Mathematicians: Indian mathematicians such as Aryabhata and Brahmagupta later elevated these early concepts to unprecedented heights. Aryabhata’s Aryabhatiya is a landmark work that covers arithmetic, algebra, geometry, and trigonometry. Brahmagupta’s Brahma-sphutasiddhanta expanded on these ideas, introducing quadratic equations and the concept of zero. 

Interplay of Language and Logic in Sanskrit Mathematics: The precision and conciseness of Sanskrit make it an ideal language for expressing complex mathematical ideas. The structure of Sanskrit grammar, with its patterns and symmetries, mirrors the underlying principles of mathematics. This linguistic framework enabled Indian scholars to articulate sophisticated mathematical concepts with clarity and elegance.

India’s Mathematical Contributions: India’s contributions to global mathematics are unparalleled, particularly the concept of zero, known as ‘shunya’ in Sanskrit, meaning void. This numeral revolutionized mathematics and introduced the concept of infinity. India also pioneered the decimal system, algebra, algorithms, square and cube roots, centuries before these ideas reached the rest of the world.
As we seek to revitalize Sanskrit today, it is crucial to recognize its invaluable role in the history of mathematics. By studying ancient Sanskrit texts, we not only honor the intellectual brilliance of our ancestors but also gain new insights into contemporary mathematical challenges. The deep connection between Sanskrit and mathematics offers a unique perspective on the evolution of human knowledge and innovation.

Wednesday, May 3, 2023

SANSKRIT SUBHASHITANI

🌿परस्य पीडया लब्धं धर्मस्योल्लंघनेन च। आत्मावमानसंप्राप्तं न धनं तत् सुखाय वै।।

🌞यत् धनं अन्यं पीडयित्वा धर्मम् उल्लङ्घ्य अथवा अपमानं सहित्वा प्राप्यते तस्मात् न कदापि सुखं प्राप्यते केनापि।

🌷दूसरों को दु:ख देकर , धर्म का उल्लंघन करके या खुद का अपमान सहकर मिले हुए धन से कभी सुख नही प्राप्त होता ।
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दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम् ।

मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रय:॥

मनुजजन्म मोक्षम् अवाप्तुमिच्छा तथा श्रेष्ठजनानां सङ्गतिः इत्येते ईश्वरानुग्रहेण भवति। 

मनुष्य जन्म, मुक्ति की इच्छा तथा महापुरूषों का संश्रय (सत्संग), यह तीन चीजें परमेश्वर की कृपा पर ही निर्भर रहती हैं ।

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क्षमासारा हि साधवः।

सज्जन लोग  हमेशा क्षमाशील होतें हैं।

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गतं तु नानुशोचन्ति गतं तु गतमेव हि।

जो बात बीत गयीसो बीत गयी,, इसलिए बुद्धिमा लोग बीती बात के लिए बार बार शोक नहीं करतें।

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उत्साहवन्तः पुरुषा नावसीदन्ति कर्मसु          

जिनके हृदय में उत्साह होता है वे पुरुष कठिन से कठिन कार्य  पड़ने पर हिम्मत नहीं हारते।

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आत्मज्ञानं समारम्भः तितिक्षा धर्मनित्यता।

यमर्थान्नापकर्षन्ति    वै  पण्डित  उच्यते।।

यः आत्मनः विषये जानाति कल्याणकारीषु कर्मसु प्रवर्तते सहनशीलः अस्ति धर्मप्रवृत्तिः यस्य वर्तते तथा यं जनं इन्द्रियार्थाः कर्षन्ति तादृशः जनः पण्डितः उच्यते।

जो स्वयं अपनी योग्यता से परिचित हो तथानुसार कल्याणकारी कार्य करता हो, जिसमें कष्ट सहने की शक्ति हो जो विपरीत परिस्थितियों में भी धर्म से विमुख हो, ऐसा व्यक्ति ही सच्चा ज्ञानी कहलाता है।

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आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षा धर्म नित्यता

यमार्थन्नापकर्षन्ति वै पण्डित उच्यते ग।।

ज्ञानी वही है जो अपनी उपयोगिता तथा जानता है, संघर्षशील है, जिसके अन्दर समस्याओं से लड़ने का सामर्थ्य है और जो किसी भी परिस्थिति में अपने कर्तव्य पथ से विचलित नहीं होता है, वही पण्डित कहलाता है।

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अभियुक्तं बलवता दुर्बलं हीनसाधनम्

हृतस्वं कामिनं चोरमाविशन्ति प्रजागरः॥

जिस साधन रहित, दुर्बल मनुष्य का किसी बलवान के साथ विरोध हो गया हो, जिसने अपना सब कुछ खो दिया हो, कामी पुरुष तथा चोर को रात में जागने का रोग लग जाता है।

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दश धर्मं जानन्ति धृतराष्ट्र निबोध तान्

मत्तः प्रमत्त उन्मत्तः श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः

दस प्रकार के लोग धर्म को नहीं जानते - नशे में मतवाला, असावधान, पागल, थका हुआ, क्रोधी, भूखा, जल्दबाज, लोभी, भयभीत और कामी ये दस हैं। अतः इन सब लोगों में विद्वान् पुरुष आसक्ति बढ़ावे

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नात्मार्थं नापि कामार्थम् अतः भूतदयां प्रति

वर्तते यश्चिकित्सायां सः सर्वमतिवर्तते।।

एव सर्वश्रेष्ठः चिकित्सकः वर्तते यः स्वार्थं दृष्ट्वा वित्तं दृष्ट्वा केवलं दयाकारणेन चिकित्सां करोति।

 Most exalted healthworker is the one who treats patients, purely for the feeling of mercy, without caring wealth or any other material benefits.

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कटु क्वणन्तो मलदायकाः खलाः तुदन्त्यलं बन्धनशृङ्खला इव।

मनस्तु साधुध्वनिभिः पदे पदे हरन्ति सन्तो मणिनूपुरा इव॥

जैसे कर्णकटु शब्द करने वाली तथा बन्धन के स्थल को काला बना देने वाली जंजीरे वैसे ही कटु वचन बोलने वाले तथा दूसरों पर मिथ्या कलङ्क लगाने वाले दुष्ट व्यक्ति अत्यधिक दुःख देते हैं। इसके विपरीत सज्जन पद-पद पर मधुर ध्वनि से प्रत्येक पादन्यास पर मणि के नूपुर की तरह मन मोह लेते हैं।

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वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह।

मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि॥

हिंसक पशुओं के साथ जंगल में और दुर्गम पहाड़ों पर विचरण करना कहीं बेहतर है परन्तु मूर्खजन के साथ स्वर्ग में रहना भी श्रेष्ठ नहीं है

It is better to roam with the wild beasts in dense forest and difficult mountains than to live in the mansions of Lord Of the gods Indra in company of a fool.

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निर्धना धनमिच्छन्ति वाचं चैव चतुष्पदाः मानवाः स्वर्गमिच्छन्ति मोक्षमिच्छन्ति देवताः।।

चाह सब को है निर्धन को धन की इच्छा, पशु चार पैर वाले को बचन (बोलने) की इच्छा और देवता मोक्ष की इच्छा रखते हैं।।

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नास्ति मेघसमं तोयं नास्ति आत्मसमं बलम्। नास्ति चक्षुः समं तेजो नास्ति चान्नसमं प्रियम्।।

मेघ के जल के समान दूसरा जल उत्तम नहीं, आत्मबल के समान और दूसरा बल नहीं। नेत्र तेज के समान दूसरा तेज नहीं और अन्न के समान दूसरी कोई वस्तु प्यारी इस संसार में नहीं है।

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आरोप्यते शिला शैले यत्नेन महता यथा।

पात्यते तु क्षणेनाधस्तथात्मा गुणदोषयो:||

शिला को पर्वत के उपर ले जाना कठिन कार्य है परन्तु उपर से नीचे धकेलना अत्यंत सरल है  ऐसे ही मनुष्य को सद्गुणों से युक्त करना कठिन है परंतु दुर्गुणों से भरना अत्यंत सुलभ है।

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धनहीनो हीनश्च धनिकः सुनिश्चयः। विद्यारत्नेन यो हीनः हीनः सर्ववस्तुषु||

धन का होना धन हीन (निर्धनी) नहीं कहाता यानी उसे हीन नहीं कहा जाता हीन तो वस्तुतः वही मनुष्य है जो विद्याहीन है-विद्या विहीन ही हीन हैं और विद्यावान तो परम धनी है ।।

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नाऽस्ति कामसमो व्याधिर्नाऽस्ति मोहसमो रिपुः।

नाऽस्ति कोपसमो वह्निर्नाऽस्ति ज्ञानात् परं सुखम्॥

काम के समान दूसरा कोई रोग नहीं है। मोह की तरह दूसरा कोई शत्रु नहीं है। क्रोध जैसी अन्य कोई आग नहीं है और ज्ञान से श्रेष्ठ कोई सुख नहीं है।

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एकाकी चिन्तयेन्नित्यं विविक्ते हितमात्मनः।

एकाकी चिन्तमानो हि परं श्रेयोऽधिगच्छति।।

एकान्त स्थान में अकेला ही अपने हित का नित्य चिन्तन करना चाहिए, क्योंकि अकेले सोचनेवाला ही परम श्रेय को प्राप्त करता है।

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अनधीत्य शब्दशास्त्रं योऽन्यच्छास्त्रं समीहते कर्तुम्।

सोऽहेः पदानि गणयति निशि तमसि जले चिरगतस्य॥

Having not learnt the grammar, the one who tries to write any other literary text, (it is like) he is trying count the legs of snake during a dark night that has gone in water since a long time.

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जीवति गुणा यस्य धर्मो यस्य जीवति।

गुणधर्मविहीनो यो निष्फलं तस्य जीवनम्।।

जो गुणवान है वही जीवित है। जो धार्मिक है वही जीवित है। जो गुण धर्म से रहित है उसका जीवन निष्फल है।

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वाणी रसवती यस्य यस्य श्रमवती क्रिया।

लक्ष्मीः दानवती यस्य सफलं तस्य जीवितं।।

जिस मनुष्य की वाणी मीठी है, जिसका कार्य परिश्रम से युक्त है, जिसका धन दान करने में प्रयुक्त होता है, उसका जीवन सफल है।

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मूर्खस्य पञ्च चिह्नानि गर्वो दुर्वचनं तथा

क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः।।

एक मूर्ख के पांच लक्षण होते हैं घमण्ड, दुष्ट वार्तालाप, क्रोध, जिद्दी तर्क और अन्य लोगों के लिए सम्मान में कमी

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योऽर्चितं प्रतिगृह्णाति ददात्यर्चितमेव च।

तावुभौ गच्छत: स्वर्गं नरकं तु विपर्यये।।

आदर से देने वाले एवं आदर से लेने वाले, दोनों स्वर्ग प्राप्त करते हैं और इस नियम के अपवादी (नहीं मानने वाले) नरक में जाते हैं।

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अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूजनीयो पूज्यते।

त्रीणि तत्र भविष्यन्ति दारिद्र्यं मरणं भयम्॥

सम्माननीय का अपमान और अपूज्यों का सम्मान दारिद्र्य, मरण एवं भय का कारक होता है।

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अपरे बन्धुवर्गे वा मित्रे द्वेष्टारि वा सदा

आत्मवद्वर्तनं यत्स्यात् सा दया परिकीर्तिता

कोई बाहरी व्यक्ति हो या बन्धुजन, मित्र हो या शत्रु उन सबके प्रति अपने जैसा व्यवहार करना दया कहलाता है।

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सुखं हि दुःखान्यनुभूय शोभते घनान्धकारेष्विव दीपदर्शनम्।

सुखात्तु यो याति नरो दरिद्रतां धृतः शरीरेण मृतः जीवति।।

दुःख का अनुभव करने के बाद ही सुख का अनुभव शोभा देता है जैसे कि घने अँधेरे से निकलने के बाद दीपक का दर्शन अच्छा लगता है।

सुख से रहने के बाद जो मनुष्य दरिद्र हो जाता है, वह शरीर रख कर भी मृतक जैसे ही जीवित रहता है।

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शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा

उहापोहोर्थविज्ञानं तत्वज्ञानं धीगुणा:

सुनने की इच्छा, सुनना, ग्रहण करना, याद रखना, ऊहा (तर्क-वितर्क), आपोह (सिद्धान्त निश्चय) अर्थज्ञान तथा तत्वज्ञान, ये बुद्धि के आठ अंग हैं

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